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Sunday, 26 October 2014

प्रतिनिधित्व का अधिकार

प्रतिनिधित्व का अधिकार

भारत पूरे विश्व में लोकतंत्र की एक मिसाल के रूप में जाना जाता है | इसका मज़बूत लोकतंत्र विश्व के अन्य देशों को इसकी ओर आकर्षित करता है | इसकी सरहदों से सटे कुछ देश, मसलन नेपाल, जो कि एक हिन्दू राष्ट्र है, पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य जबकि श्रीलंका संवैधानिक रूप से बौद्ध धर्म को महत्वपूर्ण स्थान देता है मगर इन सभी के बीच लगभग सवा अरब की आबादी वाले इस देश की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में होती है मगर इसके साथ ही यहाँ पर साम्प्रदियिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे विषय पर अक्सर बहस होती रहती है | विशेषकर चुनाव के समय में यह बहस और भी गर्म हो जाती है |
हालिया महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव जहाँ एक तरफ कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव की भांति ही निराशाजनक रहे वहीँ लगभग 9 वर्षों से खुद को स्थापित करने की कोशिश में लगी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के लिए भी बेहद दुखी रहे जबकि 2014 लोकसभा चुनाव में ज़बरदस्त कामयाबी से पुरजोश भारतीय जनता पार्टी यहाँ भी अपनी सफलता का सिलसिला जारी रखते हुए अब एक अन्य दल के सहयोग से सरकार बनाने की तैयारी में है | इसी बीच कुल 288 विधानसभा सीटों में से केवल 2 सीटों पर कामयाब होने वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल्मुस्लिमीन की इस मामूली सफलता ने धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की बहस को एक बार फिर से छेड़ दिया है | हालाँकि कुछ अन्य पार्टियों के हवाले से भी इस प्रकार के प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं मगर अपने सख्त तेवर और तल्ख़ लेहजे के लिए मशहूर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल्मुस्लिमीन की इस कामयाबी को केवल धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के नज़रिए से नहीं देखा जा सकता और ना ही इसे केवल एक चुनावी जीत के रूप में देखा जाना चाहिए बल्कि इस पार्टी की यह कामयाबी धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की गंभीर परिस्थितियों में घिरे इस के देश के एक अल्पसंख्यक समुदाय की राजनीतिक कशमकश को रेखांकित करती है | महाराष्ट्र जैसे प्रदेश की केवल 2 विधानसभा सीटों पर इस पार्टी की कामयाबी को पूरे देश के अल्पसंख्यक समुदाय से जोड़कर देखना शायद जल्दबाज़ी हो मगर जिस तरह से पहली बार में ही यह पार्टी अच्छी खासी सीटों पर अल्पसंख्यक और कुछ दलित वर्ग का साथ पाने में सफल रही उससे असदुद्दीन और उनकी पार्टी की लोकप्रियता तो बढ़ी ही है साथ ही साथ इससे अल्पसंख्यक समुदाय के युवा वर्ग की सोच और समझ में आ रहे परिवर्तन का भी पता चलता है जो शायद अब धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की बातों तथा इसके “तथाकथित” सिद्धांतो से ऊब चुका है और खुद को सेक्युलरिज़्म का ठेकेदार बताने वाली पार्टियों से अब धोखा खाने के मूड में नहीं है |
पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह से कुछ सांप्रदायिक ताक़तों ने बहुसंख्यक वर्ग के वोटों को अपनी झोली में डालने के लिए सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया उसे देखकर यह कहना ग़लत न होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में आए इस परिवर्तन में सांप्रदायिक ताक़तों की साम्प्रदायिक नीतियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | मुलायम, लालू, माया, ममता, सोनिया आदि को वर्षों से अल्पसंख्यक समुदाय धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सहारा देता आ रहा है मगर इन सभी ने अल्पसंख्यक वर्ग की बुनियादी समस्याओं को नज़रंदाज़ करते हुए केवल वोट बैंक के तौर इनका इस्तेमाल किया है | यही वजह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के मन में अपने ही वर्ग से अपना प्रतिनिधि चुनने की सोच ने विकास किया है |

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तब तक कमज़ोर वर्ग कमज़ोर ही रहेंगे और अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक वर्ग की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर रहेंगे जबतक कि लोकसभा अथवा विधानसभा में मज़बूती के साथ अपना पक्ष रखने वाले तथा अपनी समस्याओं को उठाने वाले मज़बूत नुमाइंदे आगे नहीं आएँगे और लोकतंत्र की कामयाबी और मज़बूती इसी में है कि सभी समुदाय तथा सभी वर्गों को समान रूप से अपना पक्ष रखने तथा अपनी बात कहने का हक़ हासिल हो |

मोहम्मद तारिकुज्ज़मा

जामिया मिल्लिया इस्लामिया 

Monday, 22 September 2014

पारिवारिक धारावाहिक और घरेलू महिलाएं

पारिवारिक धारावाहिक और घरेलू महिलाएं

भारत में 1980 के आसपास से ही धारावाहिकों की शुरुआत हो गयी थी | ये कहना ग़लत होगा कि धारावाहिकों के हवाले से भारत का एक शानदार इतिहास रहा है जो आज भी जारी है | 80 के दशक में जितने भी धारावाहिक बने उनमें ज़्यादातर की पटकथा आम लोगों के ज़िन्दगी से जुड़ी हुई होती थी। महिलाओं की सामाजिक भूमिका को नए रूप में परिभाषित करतीरजनी, बटंवारे का दर्द बयां करताबुनियाद दिन में सपने देखता मुंगेरीलाल एवं जासूसी धारावाहिक करमचंद में पंकज कपूर का डायलॉग शक करना मेरा पेशा हैवर्षों तक याद किया गया। अगर हम बात करेंहम लोगधारावाहिक की जहां से टी.वी. धारावाहिकों का सिलसिला शुरू होता है तब से लेकर आज तक एकता कपूर केअक्षर के धारावाहिकों का सैलाब हमारे सामने मौजूद है |
सन् 1989 में दूरदर्शन ने दोपहर की सेवा आरम्भ की। इस दौरान गृहणियों को दर्शक मानकर स्वाभिमान, स्वाति, जुनून, धारावाहिक प्रसारित किये गये। एक तरह से यह देश में उदारीकरण का दौर था। मीडिया ने भी समाज के सम्पन्न वर्ग को ध्यान में रखकर धारावाहिकों के निर्माण पर बल दिया।
सन् 1992 में देश का पहला निजी चैनल जी-टी.वी. दर्शकों  को उपलब्द होने लगा। इस पर प्रसारिततारानामक धारावाहिक चर्चा का विषय बना। तारा की भूमिका निभाने वाली नवनीत ने नारी की रवायती छवी को तोड़कर नये अंदाज़ में पेश किया।
जुलाई 2000 को पारिवारिक धारावाहिकों के सिलसिले की एक कड़ी क्योंकि सास भी कभी बहू थीका प्रसारण शुरू हुआ। इस धारावाहिक को महिलाओं के बीच काफी सफलता मिली। एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज़ टटोलते हुए मैट्रो शहर की महिलाओं पर केन्द्रित धारावाहिक बनाये, जिनमें महिलायें हमेशा महंगी एवं डिज़ाइनर साड़ियों एवं गहनों से लदी हुई तैयार रहती हैं। इन धारावाहिकों को सनसनीखेज़ और रोचक बनाने के लिए एक नकारात्मक चरित्र भी डाला गया। पायल, पल्लवी, देवांषी और कमोलिका के रूप् में टी.वी. की ये खलनायिकाएं अपनी कुटिल मुस्कान, साजिशों और ज़हरीले संवाद के कारण बहुत मशहूर हुईं। टी.आर.पी. के मद्देनज़र चरित्रों को पुनः जीवित करना एकता कपूर के धारावाहिकों की खासियत रही है।
 सन् 2006 में धारावाहिकों ने क्षेत्रीय परम्परागत पृष्टभूमि को अपनाया।
महिलाओं को लगता है कि टेलीविजन पर उनकी कहानी चल रही है। वे भावुक हो जाती हैं। जबमहाभारतऔररामायण सीरियल दूरदर्शन पर आते थे, तो महिलायें सारा काम-काज छोड़कर उन्हें देखने बैठ जाती थीं। उनमें से कई कहतीं, देखो, बेचारा भरत कैसे दुखी हो रहा है? वह अपने भाई से कितना प्यार करता है।द्रोपदी का चीर-हरण देखकर उनकी आंखें भर आती थीं। कहतीं, कैसी बीत रही होगी इस अबला पर। राम-सीता को वन में जाता देख कहतीं, बुरा हो कानी समंथरा का। विदाई देखकर महिलाएं भावुक हो जाती थीं यही कारण है किबालिका वधुऔरविदाईमहिलाओं में सबसे अधिकत लोकप्रिय हुए | इसका परिणाम यह है कि इन दो धारावाहिकों को कई सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है।
टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले पारिवारिक धारावाहिकों ने महिलाओं के हवाले से बहुत काम किया है। वे अब घर पर बोर नहीं होती हैं। कुछ दिनों पहले टेलीविजन के टेक्नीशियनों की हड़ताल हो गयी थी तो हमारे न्यूज चैनल कुछ यूं परेशान महिलाओं को दिखा रहे थे - ये हैं मिसेज कपूर जो पिछले कई दिनों से दुखी हैं। कारण है उनका मनपसंद धारावाहिक का आना। अब वे पौधों को पानी देकर गुज़ारा कर रही हैं। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना शुरु कर दिया है।तब सीरियल से चिपकू टाइप महिलायें रिपीट टेलिकास्टों को देखकर अवसादग्रस्त सी हो गयी थीं।
सास-बहू की खटर-पटर और चालों को देखकर लगता है कि भारतीय महिलायें चाहें वे शहरी हों या कस्बों की, छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना देती हैं। धारावाहिकों से उत्साहित होकर बहुत सी महिलाएं पार्लरों पर जाकर वैसा ही मेकअप कराती हैं जैसा कि उन्होंनेफलांसीरीयल में देखा था।
कई धरावाहिकों में महिलाओं को शक्की मिज़ाज दिखाया जाता है | यह गलत नहीं है, उन्हें शक करने की अजीब सी आदत होती है परन्तु सभी के साथ ऐसा नहीं है कई बार इससे महिलाओं के मानस पटल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इन धारावाहिकों ने महिलाओं के शक को एक नयी परिभाषा दी है। उनके सामने इतने सारी स्थितियां प्रस्तुत कर दी हैं जब वे शक कर सकती हैं। यानी कुछ सीरियल शक करने की नई तरकीबों को भी सुझा रहे हैं।
हमारे धारावाहिक निर्माता सही नब्ज़ को पहचानते हैं। इसलिये 80 प्रतिशत से ज़्यादा धारावाहिक रोने-धोने वाले होते हैं। बहुओं और सासों के झगड़ों, नखरों, स्टाइलों को देखकर लगता है कि टेलीविज़न की दुनिया में पुरुषों को कम जगह दी जा रही है। निर्माता जानते हैं कि मार्केट में महिलाओं और बच्चों से संबंधित कोई चीज़ उतार दो, फिर देखो कैसे उसकी मांग बढ़ती है।
आजकल के धारावाहिक पहनावे को भी बदल रहे हैं खासकर खलनायिकाओं के पहनने के तरीके उन्हें भा रहे हैं। ये धरावाहिकों का ही असर है कि बिंदी लगाने के नए-नए  स्टाइलों की कापी की जा रही है।
औरतों का रोना-धोना, उनकी पारिवारिक समस्याएं, उनका शोषण या उनकी बहादुरी की दास्तान आदि आजकल के धारावाहिकों के मुख्य हैं | मगर इसी बीच आजकल कुछ नए चैनल नए ढंग के धारावाहिकों के साथ मैदान में उतर चुके हैं | ‘ज़ी ज़िन्दगीऔरसोनी पलबहुत तेज़ी से अपनी जगह पक्की कर रहे हैं | ‘ज़ी ज़िन्दगीके धारावाहिकों को मध्य वर्ग की घरेलू महिलाओं में खूब पसंद किया जा रहा है | इनकी अक्सर कहानियां पाकिस्तानी संस्कृत की पृष्ठभूमि लिये हुए हैं और इनमें ज़िन्दगी की ज़मीनी हक़ीक़त से रू--रू कराने के जो कोशिश की गयी है वो वाक़ई में लाजवाब है | इस विशेषता ने घरेलू महिलाओं को और आकर्षित करने में मदद की है |
कहा जा सकता है कि भारत में पारिवारिक धारावाहिकों का भविष्य ना केवल सुरक्षित है बल्कि उज्ज्वल है क्योंकि अब भारतीय निर्माता विदेशी धारावाहिकों से काफी कुछ सीखने का प्रयास कर रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप अब नित नए-नए प्रयोग सामने रहे हैं और और घरेलू महिलाओं को भी इन प्रयोगों की वजह से कुछ अलग हटकर नया देखने को मिल रहा है |

समाप्त

मोo तारिकुज्ज़मा