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Thursday, 16 April 2015

हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स

                                                          हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स

मीडिया आज जिस आधुनिक रूप और स्वरुप के साथ हमारे सामने है ये दरअसल वर्षों से लगातार हो रहे अविष्कारों और तकनीकी क्षेत्र में निरंतर विकास का नतीजा है । भारत में मीडिया का इतिहास भले ही पुराना हो मगर पिछले दो दशकों में आधुनिकता और तकनीकों से लैस होने के कारण मीडिया ने जन-जन तक पहुँचने में तेज़ी से सफलता प्राप्त की है । इन्टरनेट तथा अन्य तकनीकी विकास ने भारत में मीडिया को और अधिक लोकप्रिय बना दिया है  । आज तकनीकी विकास के ही कारण दिन-ब-दिन मीडिया नए रंग में विकास की नयी बुलंदियों को छूते हुए आगे बढ़ता जा रहा है ।
समाचार पत्रों के बाद न्यूज़ चैनल और न्यूज़ चैनलों के बाद इन्टरनेट ने रफ़्तार के साथ ख़बरों की एक बाढ़ सी लगा दी है । आज सूचनाओं के लिए अगले दिन का इंतेज़ार बीते दिनों की बात लगती है । इन्टरनेट ने सूचनाओं को तेज़ी के साथ इधर से उधर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
इन्हीं तकनीकी विकास के नतीजे में जो सबसे अहम चीज़ देखने को मिली वो हैं न्यूज़ वेब पोर्टल्स । वेब पोर्टल्स आज समाचार हासिल करने का मुख्य माध्यम बनते जा रहे है । 1990 के बाद से प्रकाश में आने वाले वेब पोर्टल्स आज इतने थोड़े से वक़्त में भी अपनी एक अलग जगह बना चुके हैं ।
 वेब पोर्टल्स के महत्त्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज हिंदी के बड़े-बड़े समाचार चैनल्स 24 घंटे ख़बरों की बमबारी करने के बावजूद अपने-अपने न्यूज़ पोर्टल्स भी चला रहे है जहाँ से कम समय में भी अधिक से अधिक सूचनाओं को ग्रहण किया जा सकता है ।
समाचार पत्रों की तरह यहाँ स्पेस की कोई सीमा नहीं होती मगर फिर भी यह बात सोचने पर मजबूर करती है कि इन न्यूज़ पोर्टल्स पर ख़बरें विस्तृत होने के बजाय संक्षिप्त क्यों होती है । वास्तव में समाचार पत्रों की तुलना में यहाँ ख़बरें कम से कम शब्दों में बताने की कोशिश की जाती है । चूंकि इन्टरनेट वास्तव में सूचनाओं का एक ज़खीरा है जहाँ कभी भी किसी भी तरह की सूचनाएँ आसानी से उपलब्ध रहती हैं । इतनी ज़बरदस्त भीड़ में इन्टरनेट पर सूचनाओं के स्रोतों की भी कोई कमी नहीं है और एक से बढ़कर एक पोर्टल्स अपने-अपने अंदाज़ में सूचनाएँ देकर पाठकों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने की कोशिश में लगे हुए हैं ऐसे यूज़र भी आसानी तलाश करता है कि कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक जानकारी हासिल हो जाये । यही वजह है की न्यूज़ पोर्टल्स ख़बरों को संक्षेप में बता देने की ज़्यादा कोशिश करते हैं ।
वर्तमान समय में हिंदी के कुछ प्रमुख समाचार चैनलों के वेब पोर्टल्स के रूप और स्वरुप पर संक्षेप में चर्चा करते हुए हम हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स को आसानी जान और समझ की सकते हैं ।
एन डी टीवी, न्यूज़ 24, आईबीएन 7, आज तक, एबीपी न्यूज़ आदि भारत के प्रमुख हिंदी समाचार चैंनलों में से हैं । 24 घंटे समाचारों के लिए समर्पित ये चैनल्स अपने-अपने पोर्टल्स पर भी विशेष ध्यान देते हैं क्योंकि जैसे जैसे इन्टरनेट यूज़र्स की संख्या भारत में बढ़ती जा रही है और इन्टरनेट लगभग सभी लोगों तक अपनी पहुँच बनाता जा रहा है वैसे-वैसे न्यूज़ पोर्टल्स की लोकप्रियता भी बढ़ती जा रही है । आजतक को हिंदी न्यूज़ चैनलों की दुनिया का सर्वश्रेष्ठ चैनल मन जाता है मगर साथ ही साथ आजतक का वेब पोर्टल भारत के सर्वश्रेष्ठ 10 हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स की सूची में भी पहले स्थान पर है ।
आईबीएन 7 का न्यूज़ पोर्टल भी टॉप 10 की सूची में में शुमार किया जाता है आज इन्टरनेट की दुनिया में इन न्यूज़ चैनलों के पोर्टल्स के अतिरिक्त कई पोर्टल्स ऐसे भी हैं जिनकी पहचान केवल एक न्यूज़ पोर्टल्स की शक्ल में ही होती है और उनका वेब पोर्टल्स के आलावा कोई अन्य चैनल या समाचार पत्र नहीं है मगर फिर भी अपने लगातार और तेज़ रफ़्तार अपडेट के कारण निरंतर लोकप्रिय होते जा रहे हैं । इस सन्दर्भ में सबसे मशहूर वेब पोर्टल का नाम वेबदुनिया है ।
इन सभी न्यूज़ वेब पोर्टल्स ने जिस तेज़ी के साथ लोकप्रियता हासिल की है उसका प्रमुख कारण ये है कि ये काफी हद तक यूज़र फ्रेंडली हैं अर्थात एक इन्टरनेट यूज़र के लिए समाचार पत्रों से अधिक सुविधाजनक हैं । लिंक पर विज़िट करते ही खुलने वाला प्रथम पृष्ठ इतना आकर्षक होता है कि यूज़र एक बार अवश्य रुक जाता है और दो-एक अपने मतलब की ख़बर पढ़ने के बाद ही आगे बढ़ता है । ख़बरों का विषयानुसार वर्गीकरण भी पाठकों को वेब पोर्टल्स की ओर अधिक आकर्षित करता है । देश, विदेश, खेल, मनोरंजन, राजनीति, सिनेमा, बिज़नेस, कला आदि विषयों के नाम से प्रथम पृष्ठ पर अलग-अलग पेजेज़ के लिंक्स होते हैं जो एक पाठक को समाचार पत्रों की तरह पन्नों को उलट-पुलट करने से बचने में मदद करते हैं और सीधे तौर पर अपनी रुचि की ख़बर तक पहुँचने तथा पढ़ने की सुविधा प्रदान करते हैं । सोशल मीडिया ने भी न्यूज़ पोर्टल्स को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । आज लगभग सभी न्यूज़ पोर्टल्स अपने पोर्टल को सोशल मीडिया से कनेक्ट करके खुद को प्रमोट करने की कोशिश करते हैं । कुछ दिलचस्प अंदाज़ में ख़बरों की हैडिंग पेश करके पाठकों को आगे तक पढ़ने के लिए मजबूर करने की कला वास्तव में इन न्यूज़ पोर्टल्स से सीखी जा सकती है ।
हालाँकि इसी बीच ये बहस भी जारी है कि क्या न्यूज़ पोर्टल्स समाचार पत्रों को कमज़ोर करते जा रहे हैं । पिछले वर्ष हैदराबाद में आयोजित हुए पत्रकारिता के विश्वस्तरीय सम्मलेन में ये मुद्दा छाया रहा और विभिन्न मीडिया संस्थानों से आये लगभग 900 प्रतिनिधियों, सम्पादकों, तथा पत्रकारों ने इस विषय पर अपने-अपने मत रखते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि समाचार पत्रों की कमज़ोर होती साख की समस्या से निपटने के लिए गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और याहू जैसी कंपनियों के साथ सहयोग करना चाहिए । (1)

बहरहाल बात कुछ भी हो न्यूज़ पोर्टल्स काफ़ी तेज़ी के साथ अपना दायरा बढ़ाते जा रहे हैं और पिछले पांच वर्षों में जो बदलाव इन न्यूज़ पोर्टल्स को लेकर आया है वो वास्तव में समाचार पत्रों को गंभीरता के साथ सोचने पर मजबूर करेगा । ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में समाचार पत्रों और न्यूज़ पोर्टल्स के बीच एक दिलचस्प प्रतियोगिता देखने को मिलेगी ।
Mohd Tariquzzama

Wednesday, 15 April 2015

विज्ञापन के सामजिक प्रभाव


                                                विज्ञापन के सामजिक प्रभाव

वर्तमान समय में विज्ञापन बाज़ार की दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है | आज बाज़ार में अधिक से अधिक अपनी लोकप्रियता बढ़ाने, अपनी साख बनाने, अपने उत्पाद को अन्य उत्पादों की तुलना में बेहतर साबित करने तथा अधिक से अधिक समय तक मार्केट में बने रहने के लिए विज्ञापन का प्रयोग एक सशक्त हथियार के रूप में होता  है | वास्तव में विज्ञापन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पाठक अथवा दर्शक के मन को प्रभावित करते हुए उसके दिल में अपने उत्पाद के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न करने की सभी कंपनियों द्वारा हर मुमकिन कोशिश की जाती है | यह कहना गलत न होगा कि विज्ञापन व्यापार और बिक्री बढ़ाने का एकमात्र साधन हैं |
वक़्त के साथ साथ विज्ञापन की अवधारणा ने भी विस्तृत रूप लिया है और आज विज्ञापन के लिए कमर्शियल तथा नॉन-कमर्शियल जैसी परिभाषाओं का प्रयोग होता है | आज जहाँ एक तरफ अधिक से अधिक  लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से विज्ञापनों का निर्माण किया जाता है वहीँ दूसरी तरफ सामाजिक विकास, जागरूकता आदि के उद्देश्य से निर्मित किये गए विज्ञापन भी हमें देखने को मिलते हैं | चूंकि सभी विज्ञापनों में हमारे समाज को ही लक्षित किया जाता है इसलिए लाज़मी तौर पर इन विज्ञापनों का समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है|  संचार के सभी माध्यमों में, वह चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, विज्ञापन एक अभिन्न अंग बन चुका है | यहाँ पर हम प्रिंट मीडिया के सन्दर्भ में विज्ञापन के सामाजिक प्रभावों पर चर्चा कर रहे हैं |

मौजूदा दौर में विज्ञापनों का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है | विज्ञापन का पूरा करोबार ‘जो दिखता है वही बिकता है’ की तर्ज़ पर चल रहा है । आज तो आलम यह है कि इन विज्ञापनों के माध्यम से ही मांग पैदा की जाती है | आज उत्पादक किसी भी तरह से अपने उत्पाद को  बाज़ार  में  बेचना  चाहता  है और  इसके  लिए वह  विज्ञापनों का सहारा लेकर अपने उत्पाद के लिए उपभोक्ताओं को पैदा करता है | परन्तु इस व्यावसायिकता की दौड़ में दौड़ते हुए हमें यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि हमारा समाज के प्रति भी कुछ दायित्व बनता है |

यूँ तो प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में विज्ञापनों के प्रभावों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं | एक तरफ वो  विज्ञापन हैं जिनसे समाज में जागरूकता को बढ़ावा मिला है | ये विज्ञापन पूरी तरह से अपने दायित्यों पर खरा उतरते हुए समाज को सूचना के माध्यम से जागरूक करने का कार्य करते हैं | वह चाहे टैक्स सम्बंधी सूचनाओं का मामला हो ट्रैफिक नियमों के पालन करने की बात हो, ऐसे विज्ञापन अपनी ज़िम्मेदारियों पर खरा उतरते नज़र आते हैं | पोलियो और एड्स जैसी बीमारियों के प्रति जागरूक करने वाले विज्ञापनों ने समाज पर क्या प्रभाव डाला है इससे हम सब अच्छीं तरह वाकिफ हैं | पोलियो के प्रति तो इन विज्ञापनों ने ऐतिहासिक कारनामा अंजाम देते हुए आज पूरे भारत को पोलियोमुक्त देश बना दिया है |
सामाजिक कुप्रथाएं हमारे देश की पुरानी समस्याओं में से एक हैं | जात-पात और छुआ-छूत के अंधविश्वास ने बरसों से हमारे समाज में अपनी जगह बना रखी है | इस क्षेत्र में भी इस तरह के विज्ञापनों ने अपनी सकारात्मक छाप छोड़ने में सफलता प्राप्त की है |
उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने वाले विज्ञापन इस क्षेत्र के दिलचस्प उदाहरण हैं | ऐसे विज्ञापन बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ के होते हैं जो एक सामान्य नागरिक को भी हलके-फुल्के तरीक़े से उनके उपभोक्ता अधिकारों के बारे में बताते हैं | धुम्रपान, नशा, परिवार कल्याण तथा जनसँख्या नियंत्रण को लेकर तैयार किये गए विज्ञापनों ने भी एक अच्छा प्रयास किया है और समाज में इसके प्रति जागरूकता फैलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है |
दूसरी तरफ ऐसे विज्ञापन हैं जो पूरी तरह से आर्थिक लाभ को केंद्र में रखकर तैयार किये जाते हैं | ऐसे विज्ञापनों का सामाजिक सरोकार लगभग न के बराबर होता है इनका मक़सद अपने उत्पाद को अधिक से आकर्षक बनाकर ढेर सारी का पूँजी का इंतेज़ाम करना होता है | यहाँ पर वास्तव को विज्ञापन को उपभोक्ताओं को फांसने के जाल के तौर पर देखा जाता है | यहाँ पर व्यावसायिकता के दौर में सामाजिक दायित्व कहीं न कहीं पीछे छूटते नज़र आते है |
आज संचार माध्यम एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभर रहे हैं जहाँ युवा पीढ़ी को जीवन मूल्यों, आदर्शों और नैतिक गुणों को गहराई से समझाया जा सकता है  है । विज्ञापन के पास ऐसी ताकत है जो समाज में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों को नकारात्मक परिणाम के साथ प्रस्तुत कर सजगता बनाये रख सकता है मगर आज ललचाऊ और भङकाऊ विज्ञापनों ने बच्चों के विकास की रूपरेखा ही बदल दी है । खाने से लेकर खेलने तक उनकी जिंदगी सिर्फ और सिर्फ अजब गजब भौतिक वस्तुओं से भर गयी है। बच्चों को विज्ञापनों के जरिये मिली सीख ने जीवन मूल्यों  को ही बदल कर रख दिया है । इसी का नतीजा है कि बच्चों के स्वभाव में ज़रूरत की जगह इच्छा ने ले ली है। इसके अलावा विज्ञापनों में खालिस बाजारवाद के उद्देश्य से महिलाओं को अश्लील रूप में दर्शाना भी समाज को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है |

यदि विज्ञापन में उत्पाद की सही जानकारी न देकर उपभक्ताओं को मूर्ख बनाने का प्रयत्न किया गया है या फिर झूठे वादे किये गए हैं, तो कहीं न कहीं इन विज्ञापनों के प्रस्तुतकर्ता समाज को धोखा दे रहे हैं और यक़ीनन इनके दुष्परिणाम हो सकते हैं | विशेष रूप से छोटे बच्चों की मानसिकता के साथ खिलवाड़ कर उन्हें अपने जाल में फंसाना बहुत ही अनैतिक है | अनावश्यक रूप से नारियों का इन विज्ञापनों में प्रयोग भी कहीं न कहीं गलत है | प्रस्तुतकर्ताओं को एक मर्यादा में रह कर ही इन विज्ञापनों का निर्माण करना चाहिए |

अंततः यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि विज्ञापन समाज को अपने प्रभाव में अवश्य लेते हैं  | यदि एक तरफ यह हमें सूचना प्रदान करते हैं तो दूसरी तरफ हमें जागरूक करने का भी कार्य करते हैं | अर्थात विज्ञापनों का समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, अत: इनका प्रयोग निजी लाभ के बजाय समाज की भलाई के रूप में किया जाना चाहिए |
                                                                                                                                   

                                                                                                       मो० तारिकुज्ज़मा

Sunday, 26 October 2014

प्रतिनिधित्व का अधिकार

प्रतिनिधित्व का अधिकार

भारत पूरे विश्व में लोकतंत्र की एक मिसाल के रूप में जाना जाता है | इसका मज़बूत लोकतंत्र विश्व के अन्य देशों को इसकी ओर आकर्षित करता है | इसकी सरहदों से सटे कुछ देश, मसलन नेपाल, जो कि एक हिन्दू राष्ट्र है, पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य जबकि श्रीलंका संवैधानिक रूप से बौद्ध धर्म को महत्वपूर्ण स्थान देता है मगर इन सभी के बीच लगभग सवा अरब की आबादी वाले इस देश की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में होती है मगर इसके साथ ही यहाँ पर साम्प्रदियिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे विषय पर अक्सर बहस होती रहती है | विशेषकर चुनाव के समय में यह बहस और भी गर्म हो जाती है |
हालिया महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव जहाँ एक तरफ कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव की भांति ही निराशाजनक रहे वहीँ लगभग 9 वर्षों से खुद को स्थापित करने की कोशिश में लगी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के लिए भी बेहद दुखी रहे जबकि 2014 लोकसभा चुनाव में ज़बरदस्त कामयाबी से पुरजोश भारतीय जनता पार्टी यहाँ भी अपनी सफलता का सिलसिला जारी रखते हुए अब एक अन्य दल के सहयोग से सरकार बनाने की तैयारी में है | इसी बीच कुल 288 विधानसभा सीटों में से केवल 2 सीटों पर कामयाब होने वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल्मुस्लिमीन की इस मामूली सफलता ने धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की बहस को एक बार फिर से छेड़ दिया है | हालाँकि कुछ अन्य पार्टियों के हवाले से भी इस प्रकार के प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं मगर अपने सख्त तेवर और तल्ख़ लेहजे के लिए मशहूर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल्मुस्लिमीन की इस कामयाबी को केवल धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के नज़रिए से नहीं देखा जा सकता और ना ही इसे केवल एक चुनावी जीत के रूप में देखा जाना चाहिए बल्कि इस पार्टी की यह कामयाबी धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की गंभीर परिस्थितियों में घिरे इस के देश के एक अल्पसंख्यक समुदाय की राजनीतिक कशमकश को रेखांकित करती है | महाराष्ट्र जैसे प्रदेश की केवल 2 विधानसभा सीटों पर इस पार्टी की कामयाबी को पूरे देश के अल्पसंख्यक समुदाय से जोड़कर देखना शायद जल्दबाज़ी हो मगर जिस तरह से पहली बार में ही यह पार्टी अच्छी खासी सीटों पर अल्पसंख्यक और कुछ दलित वर्ग का साथ पाने में सफल रही उससे असदुद्दीन और उनकी पार्टी की लोकप्रियता तो बढ़ी ही है साथ ही साथ इससे अल्पसंख्यक समुदाय के युवा वर्ग की सोच और समझ में आ रहे परिवर्तन का भी पता चलता है जो शायद अब धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता की बातों तथा इसके “तथाकथित” सिद्धांतो से ऊब चुका है और खुद को सेक्युलरिज़्म का ठेकेदार बताने वाली पार्टियों से अब धोखा खाने के मूड में नहीं है |
पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह से कुछ सांप्रदायिक ताक़तों ने बहुसंख्यक वर्ग के वोटों को अपनी झोली में डालने के लिए सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया उसे देखकर यह कहना ग़लत न होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में आए इस परिवर्तन में सांप्रदायिक ताक़तों की साम्प्रदायिक नीतियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | मुलायम, लालू, माया, ममता, सोनिया आदि को वर्षों से अल्पसंख्यक समुदाय धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सहारा देता आ रहा है मगर इन सभी ने अल्पसंख्यक वर्ग की बुनियादी समस्याओं को नज़रंदाज़ करते हुए केवल वोट बैंक के तौर इनका इस्तेमाल किया है | यही वजह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के मन में अपने ही वर्ग से अपना प्रतिनिधि चुनने की सोच ने विकास किया है |

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तब तक कमज़ोर वर्ग कमज़ोर ही रहेंगे और अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक वर्ग की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर रहेंगे जबतक कि लोकसभा अथवा विधानसभा में मज़बूती के साथ अपना पक्ष रखने वाले तथा अपनी समस्याओं को उठाने वाले मज़बूत नुमाइंदे आगे नहीं आएँगे और लोकतंत्र की कामयाबी और मज़बूती इसी में है कि सभी समुदाय तथा सभी वर्गों को समान रूप से अपना पक्ष रखने तथा अपनी बात कहने का हक़ हासिल हो |

मोहम्मद तारिकुज्ज़मा

जामिया मिल्लिया इस्लामिया 

Monday, 22 September 2014

पारिवारिक धारावाहिक और घरेलू महिलाएं

पारिवारिक धारावाहिक और घरेलू महिलाएं

भारत में 1980 के आसपास से ही धारावाहिकों की शुरुआत हो गयी थी | ये कहना ग़लत होगा कि धारावाहिकों के हवाले से भारत का एक शानदार इतिहास रहा है जो आज भी जारी है | 80 के दशक में जितने भी धारावाहिक बने उनमें ज़्यादातर की पटकथा आम लोगों के ज़िन्दगी से जुड़ी हुई होती थी। महिलाओं की सामाजिक भूमिका को नए रूप में परिभाषित करतीरजनी, बटंवारे का दर्द बयां करताबुनियाद दिन में सपने देखता मुंगेरीलाल एवं जासूसी धारावाहिक करमचंद में पंकज कपूर का डायलॉग शक करना मेरा पेशा हैवर्षों तक याद किया गया। अगर हम बात करेंहम लोगधारावाहिक की जहां से टी.वी. धारावाहिकों का सिलसिला शुरू होता है तब से लेकर आज तक एकता कपूर केअक्षर के धारावाहिकों का सैलाब हमारे सामने मौजूद है |
सन् 1989 में दूरदर्शन ने दोपहर की सेवा आरम्भ की। इस दौरान गृहणियों को दर्शक मानकर स्वाभिमान, स्वाति, जुनून, धारावाहिक प्रसारित किये गये। एक तरह से यह देश में उदारीकरण का दौर था। मीडिया ने भी समाज के सम्पन्न वर्ग को ध्यान में रखकर धारावाहिकों के निर्माण पर बल दिया।
सन् 1992 में देश का पहला निजी चैनल जी-टी.वी. दर्शकों  को उपलब्द होने लगा। इस पर प्रसारिततारानामक धारावाहिक चर्चा का विषय बना। तारा की भूमिका निभाने वाली नवनीत ने नारी की रवायती छवी को तोड़कर नये अंदाज़ में पेश किया।
जुलाई 2000 को पारिवारिक धारावाहिकों के सिलसिले की एक कड़ी क्योंकि सास भी कभी बहू थीका प्रसारण शुरू हुआ। इस धारावाहिक को महिलाओं के बीच काफी सफलता मिली। एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज़ टटोलते हुए मैट्रो शहर की महिलाओं पर केन्द्रित धारावाहिक बनाये, जिनमें महिलायें हमेशा महंगी एवं डिज़ाइनर साड़ियों एवं गहनों से लदी हुई तैयार रहती हैं। इन धारावाहिकों को सनसनीखेज़ और रोचक बनाने के लिए एक नकारात्मक चरित्र भी डाला गया। पायल, पल्लवी, देवांषी और कमोलिका के रूप् में टी.वी. की ये खलनायिकाएं अपनी कुटिल मुस्कान, साजिशों और ज़हरीले संवाद के कारण बहुत मशहूर हुईं। टी.आर.पी. के मद्देनज़र चरित्रों को पुनः जीवित करना एकता कपूर के धारावाहिकों की खासियत रही है।
 सन् 2006 में धारावाहिकों ने क्षेत्रीय परम्परागत पृष्टभूमि को अपनाया।
महिलाओं को लगता है कि टेलीविजन पर उनकी कहानी चल रही है। वे भावुक हो जाती हैं। जबमहाभारतऔररामायण सीरियल दूरदर्शन पर आते थे, तो महिलायें सारा काम-काज छोड़कर उन्हें देखने बैठ जाती थीं। उनमें से कई कहतीं, देखो, बेचारा भरत कैसे दुखी हो रहा है? वह अपने भाई से कितना प्यार करता है।द्रोपदी का चीर-हरण देखकर उनकी आंखें भर आती थीं। कहतीं, कैसी बीत रही होगी इस अबला पर। राम-सीता को वन में जाता देख कहतीं, बुरा हो कानी समंथरा का। विदाई देखकर महिलाएं भावुक हो जाती थीं यही कारण है किबालिका वधुऔरविदाईमहिलाओं में सबसे अधिकत लोकप्रिय हुए | इसका परिणाम यह है कि इन दो धारावाहिकों को कई सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है।
टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले पारिवारिक धारावाहिकों ने महिलाओं के हवाले से बहुत काम किया है। वे अब घर पर बोर नहीं होती हैं। कुछ दिनों पहले टेलीविजन के टेक्नीशियनों की हड़ताल हो गयी थी तो हमारे न्यूज चैनल कुछ यूं परेशान महिलाओं को दिखा रहे थे - ये हैं मिसेज कपूर जो पिछले कई दिनों से दुखी हैं। कारण है उनका मनपसंद धारावाहिक का आना। अब वे पौधों को पानी देकर गुज़ारा कर रही हैं। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना शुरु कर दिया है।तब सीरियल से चिपकू टाइप महिलायें रिपीट टेलिकास्टों को देखकर अवसादग्रस्त सी हो गयी थीं।
सास-बहू की खटर-पटर और चालों को देखकर लगता है कि भारतीय महिलायें चाहें वे शहरी हों या कस्बों की, छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना देती हैं। धारावाहिकों से उत्साहित होकर बहुत सी महिलाएं पार्लरों पर जाकर वैसा ही मेकअप कराती हैं जैसा कि उन्होंनेफलांसीरीयल में देखा था।
कई धरावाहिकों में महिलाओं को शक्की मिज़ाज दिखाया जाता है | यह गलत नहीं है, उन्हें शक करने की अजीब सी आदत होती है परन्तु सभी के साथ ऐसा नहीं है कई बार इससे महिलाओं के मानस पटल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इन धारावाहिकों ने महिलाओं के शक को एक नयी परिभाषा दी है। उनके सामने इतने सारी स्थितियां प्रस्तुत कर दी हैं जब वे शक कर सकती हैं। यानी कुछ सीरियल शक करने की नई तरकीबों को भी सुझा रहे हैं।
हमारे धारावाहिक निर्माता सही नब्ज़ को पहचानते हैं। इसलिये 80 प्रतिशत से ज़्यादा धारावाहिक रोने-धोने वाले होते हैं। बहुओं और सासों के झगड़ों, नखरों, स्टाइलों को देखकर लगता है कि टेलीविज़न की दुनिया में पुरुषों को कम जगह दी जा रही है। निर्माता जानते हैं कि मार्केट में महिलाओं और बच्चों से संबंधित कोई चीज़ उतार दो, फिर देखो कैसे उसकी मांग बढ़ती है।
आजकल के धारावाहिक पहनावे को भी बदल रहे हैं खासकर खलनायिकाओं के पहनने के तरीके उन्हें भा रहे हैं। ये धरावाहिकों का ही असर है कि बिंदी लगाने के नए-नए  स्टाइलों की कापी की जा रही है।
औरतों का रोना-धोना, उनकी पारिवारिक समस्याएं, उनका शोषण या उनकी बहादुरी की दास्तान आदि आजकल के धारावाहिकों के मुख्य हैं | मगर इसी बीच आजकल कुछ नए चैनल नए ढंग के धारावाहिकों के साथ मैदान में उतर चुके हैं | ‘ज़ी ज़िन्दगीऔरसोनी पलबहुत तेज़ी से अपनी जगह पक्की कर रहे हैं | ‘ज़ी ज़िन्दगीके धारावाहिकों को मध्य वर्ग की घरेलू महिलाओं में खूब पसंद किया जा रहा है | इनकी अक्सर कहानियां पाकिस्तानी संस्कृत की पृष्ठभूमि लिये हुए हैं और इनमें ज़िन्दगी की ज़मीनी हक़ीक़त से रू--रू कराने के जो कोशिश की गयी है वो वाक़ई में लाजवाब है | इस विशेषता ने घरेलू महिलाओं को और आकर्षित करने में मदद की है |
कहा जा सकता है कि भारत में पारिवारिक धारावाहिकों का भविष्य ना केवल सुरक्षित है बल्कि उज्ज्वल है क्योंकि अब भारतीय निर्माता विदेशी धारावाहिकों से काफी कुछ सीखने का प्रयास कर रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप अब नित नए-नए प्रयोग सामने रहे हैं और और घरेलू महिलाओं को भी इन प्रयोगों की वजह से कुछ अलग हटकर नया देखने को मिल रहा है |

समाप्त

मोo तारिकुज्ज़मा