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Wednesday, 15 April 2015

विज्ञापन के सामजिक प्रभाव


                                                विज्ञापन के सामजिक प्रभाव

वर्तमान समय में विज्ञापन बाज़ार की दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है | आज बाज़ार में अधिक से अधिक अपनी लोकप्रियता बढ़ाने, अपनी साख बनाने, अपने उत्पाद को अन्य उत्पादों की तुलना में बेहतर साबित करने तथा अधिक से अधिक समय तक मार्केट में बने रहने के लिए विज्ञापन का प्रयोग एक सशक्त हथियार के रूप में होता  है | वास्तव में विज्ञापन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पाठक अथवा दर्शक के मन को प्रभावित करते हुए उसके दिल में अपने उत्पाद के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न करने की सभी कंपनियों द्वारा हर मुमकिन कोशिश की जाती है | यह कहना गलत न होगा कि विज्ञापन व्यापार और बिक्री बढ़ाने का एकमात्र साधन हैं |
वक़्त के साथ साथ विज्ञापन की अवधारणा ने भी विस्तृत रूप लिया है और आज विज्ञापन के लिए कमर्शियल तथा नॉन-कमर्शियल जैसी परिभाषाओं का प्रयोग होता है | आज जहाँ एक तरफ अधिक से अधिक  लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से विज्ञापनों का निर्माण किया जाता है वहीँ दूसरी तरफ सामाजिक विकास, जागरूकता आदि के उद्देश्य से निर्मित किये गए विज्ञापन भी हमें देखने को मिलते हैं | चूंकि सभी विज्ञापनों में हमारे समाज को ही लक्षित किया जाता है इसलिए लाज़मी तौर पर इन विज्ञापनों का समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है|  संचार के सभी माध्यमों में, वह चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, विज्ञापन एक अभिन्न अंग बन चुका है | यहाँ पर हम प्रिंट मीडिया के सन्दर्भ में विज्ञापन के सामाजिक प्रभावों पर चर्चा कर रहे हैं |

मौजूदा दौर में विज्ञापनों का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है | विज्ञापन का पूरा करोबार ‘जो दिखता है वही बिकता है’ की तर्ज़ पर चल रहा है । आज तो आलम यह है कि इन विज्ञापनों के माध्यम से ही मांग पैदा की जाती है | आज उत्पादक किसी भी तरह से अपने उत्पाद को  बाज़ार  में  बेचना  चाहता  है और  इसके  लिए वह  विज्ञापनों का सहारा लेकर अपने उत्पाद के लिए उपभोक्ताओं को पैदा करता है | परन्तु इस व्यावसायिकता की दौड़ में दौड़ते हुए हमें यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि हमारा समाज के प्रति भी कुछ दायित्व बनता है |

यूँ तो प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में विज्ञापनों के प्रभावों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं | एक तरफ वो  विज्ञापन हैं जिनसे समाज में जागरूकता को बढ़ावा मिला है | ये विज्ञापन पूरी तरह से अपने दायित्यों पर खरा उतरते हुए समाज को सूचना के माध्यम से जागरूक करने का कार्य करते हैं | वह चाहे टैक्स सम्बंधी सूचनाओं का मामला हो ट्रैफिक नियमों के पालन करने की बात हो, ऐसे विज्ञापन अपनी ज़िम्मेदारियों पर खरा उतरते नज़र आते हैं | पोलियो और एड्स जैसी बीमारियों के प्रति जागरूक करने वाले विज्ञापनों ने समाज पर क्या प्रभाव डाला है इससे हम सब अच्छीं तरह वाकिफ हैं | पोलियो के प्रति तो इन विज्ञापनों ने ऐतिहासिक कारनामा अंजाम देते हुए आज पूरे भारत को पोलियोमुक्त देश बना दिया है |
सामाजिक कुप्रथाएं हमारे देश की पुरानी समस्याओं में से एक हैं | जात-पात और छुआ-छूत के अंधविश्वास ने बरसों से हमारे समाज में अपनी जगह बना रखी है | इस क्षेत्र में भी इस तरह के विज्ञापनों ने अपनी सकारात्मक छाप छोड़ने में सफलता प्राप्त की है |
उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने वाले विज्ञापन इस क्षेत्र के दिलचस्प उदाहरण हैं | ऐसे विज्ञापन बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ के होते हैं जो एक सामान्य नागरिक को भी हलके-फुल्के तरीक़े से उनके उपभोक्ता अधिकारों के बारे में बताते हैं | धुम्रपान, नशा, परिवार कल्याण तथा जनसँख्या नियंत्रण को लेकर तैयार किये गए विज्ञापनों ने भी एक अच्छा प्रयास किया है और समाज में इसके प्रति जागरूकता फैलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है |
दूसरी तरफ ऐसे विज्ञापन हैं जो पूरी तरह से आर्थिक लाभ को केंद्र में रखकर तैयार किये जाते हैं | ऐसे विज्ञापनों का सामाजिक सरोकार लगभग न के बराबर होता है इनका मक़सद अपने उत्पाद को अधिक से आकर्षक बनाकर ढेर सारी का पूँजी का इंतेज़ाम करना होता है | यहाँ पर वास्तव को विज्ञापन को उपभोक्ताओं को फांसने के जाल के तौर पर देखा जाता है | यहाँ पर व्यावसायिकता के दौर में सामाजिक दायित्व कहीं न कहीं पीछे छूटते नज़र आते है |
आज संचार माध्यम एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभर रहे हैं जहाँ युवा पीढ़ी को जीवन मूल्यों, आदर्शों और नैतिक गुणों को गहराई से समझाया जा सकता है  है । विज्ञापन के पास ऐसी ताकत है जो समाज में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों को नकारात्मक परिणाम के साथ प्रस्तुत कर सजगता बनाये रख सकता है मगर आज ललचाऊ और भङकाऊ विज्ञापनों ने बच्चों के विकास की रूपरेखा ही बदल दी है । खाने से लेकर खेलने तक उनकी जिंदगी सिर्फ और सिर्फ अजब गजब भौतिक वस्तुओं से भर गयी है। बच्चों को विज्ञापनों के जरिये मिली सीख ने जीवन मूल्यों  को ही बदल कर रख दिया है । इसी का नतीजा है कि बच्चों के स्वभाव में ज़रूरत की जगह इच्छा ने ले ली है। इसके अलावा विज्ञापनों में खालिस बाजारवाद के उद्देश्य से महिलाओं को अश्लील रूप में दर्शाना भी समाज को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है |

यदि विज्ञापन में उत्पाद की सही जानकारी न देकर उपभक्ताओं को मूर्ख बनाने का प्रयत्न किया गया है या फिर झूठे वादे किये गए हैं, तो कहीं न कहीं इन विज्ञापनों के प्रस्तुतकर्ता समाज को धोखा दे रहे हैं और यक़ीनन इनके दुष्परिणाम हो सकते हैं | विशेष रूप से छोटे बच्चों की मानसिकता के साथ खिलवाड़ कर उन्हें अपने जाल में फंसाना बहुत ही अनैतिक है | अनावश्यक रूप से नारियों का इन विज्ञापनों में प्रयोग भी कहीं न कहीं गलत है | प्रस्तुतकर्ताओं को एक मर्यादा में रह कर ही इन विज्ञापनों का निर्माण करना चाहिए |

अंततः यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि विज्ञापन समाज को अपने प्रभाव में अवश्य लेते हैं  | यदि एक तरफ यह हमें सूचना प्रदान करते हैं तो दूसरी तरफ हमें जागरूक करने का भी कार्य करते हैं | अर्थात विज्ञापनों का समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, अत: इनका प्रयोग निजी लाभ के बजाय समाज की भलाई के रूप में किया जाना चाहिए |
                                                                                                                                   

                                                                                                       मो० तारिकुज्ज़मा

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