पारिवारिक धारावाहिक और घरेलू महिलाएं
भारत में 1980 के आसपास से ही धारावाहिकों की शुरुआत हो गयी थी | ये कहना ग़लत न होगा कि धारावाहिकों के हवाले से भारत का एक शानदार इतिहास रहा है जो आज भी जारी है | 80 के दशक में जितने भी धारावाहिक बने उनमें ज़्यादातर की पटकथा आम लोगों के ज़िन्दगी से जुड़ी हुई होती थी। महिलाओं की सामाजिक भूमिका को नए रूप में परिभाषित करती ‘रजनी’, बटंवारे का दर्द बयां करता ‘बुनियाद’ दिन में सपने देखता मुंगेरीलाल एवं जासूसी धारावाहिक करमचंद में पंकज कपूर का डायलॉग ‘शक करना मेरा पेशा है’ वर्षों तक याद किया गया। अगर हम बात करें ‘हम लोग’ धारावाहिक की जहां से टी.वी. धारावाहिकों का सिलसिला शुरू होता है तब से लेकर आज तक एकता कपूर के ‘क’ अक्षर के धारावाहिकों का सैलाब हमारे सामने मौजूद है |
सन् 1989 में दूरदर्शन ने दोपहर की सेवा आरम्भ की। इस दौरान गृहणियों को दर्शक मानकर स्वाभिमान, स्वाति, जुनून, धारावाहिक प्रसारित किये गये। एक तरह से यह देश में उदारीकरण का दौर था। मीडिया ने भी समाज के सम्पन्न वर्ग को ध्यान में रखकर धारावाहिकों के निर्माण पर बल दिया।
सन् 1992 में देश का पहला निजी चैनल जी-टी.वी. दर्शकों को उपलब्द होने लगा। इस पर प्रसारित ‘तारा’ नामक धारावाहिक चर्चा का विषय बना। तारा की भूमिका निभाने वाली नवनीत ने नारी की रवायती छवी को तोड़कर नये अंदाज़ में पेश किया।
जुलाई 2000 को पारिवारिक धारावाहिकों के सिलसिले की एक कड़ी ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’का प्रसारण शुरू हुआ। इस धारावाहिक को महिलाओं के बीच काफी सफलता मिली। एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज़ टटोलते हुए मैट्रो शहर की महिलाओं पर केन्द्रित धारावाहिक बनाये, जिनमें महिलायें हमेशा महंगी एवं डिज़ाइनर साड़ियों एवं गहनों से लदी हुई तैयार रहती हैं। इन धारावाहिकों को सनसनीखेज़ और रोचक बनाने के लिए एक नकारात्मक चरित्र भी डाला गया। पायल, पल्लवी, देवांषी और कमोलिका के रूप् में टी.वी. की ये खलनायिकाएं अपनी कुटिल मुस्कान, साजिशों और ज़हरीले संवाद के कारण बहुत मशहूर हुईं। टी.आर.पी. के मद्देनज़र चरित्रों को पुनः जीवित करना एकता कपूर के धारावाहिकों की खासियत रही है।
सन् 2006 में धारावाहिकों ने क्षेत्रीय परम्परागत पृष्टभूमि को अपनाया।
महिलाओं को लगता है कि टेलीविजन पर उनकी कहानी चल रही है। वे भावुक हो जाती हैं। जब ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ सीरियल दूरदर्शन पर आते थे, तो महिलायें सारा काम-काज छोड़कर उन्हें देखने बैठ जाती थीं। उनमें से कई कहतीं, ‘देखो, बेचारा भरत कैसे दुखी हो रहा है? वह अपने भाई से कितना प्यार करता है।’ द्रोपदी का चीर-हरण देखकर उनकी आंखें भर आती थीं। कहतीं, ‘कैसी बीत रही होगी इस अबला पर। राम-सीता को वन में जाता देख कहतीं, ‘बुरा हो कानी समंथरा का। ‘विदाई’ देखकर महिलाएं भावुक हो जाती थीं । यही कारण है कि ‘बालिका वधु’ और ‘विदाई’ महिलाओं में सबसे अधिकत लोकप्रिय हुए | इसका परिणाम यह है कि इन दो धारावाहिकों को कई सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है।
टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले पारिवारिक धारावाहिकों ने महिलाओं के हवाले से बहुत काम किया है। वे अब घर पर बोर नहीं होती हैं। कुछ दिनों पहले टेलीविजन के टेक्नीशियनों की हड़ताल हो गयी थी तो हमारे न्यूज चैनल कुछ यूं परेशान महिलाओं को दिखा रहे थे - ‘ये हैं मिसेज कपूर जो पिछले कई दिनों से दुखी हैं। कारण है उनका मनपसंद धारावाहिक का न आना। अब वे पौधों को पानी देकर गुज़ारा कर रही हैं। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना शुरु कर दिया है।’ तब सीरियल से चिपकू टाइप महिलायें रिपीट टेलिकास्टों को देखकर अवसादग्रस्त सी हो गयी थीं।
सास-बहू की खटर-पटर और चालों को देखकर लगता है कि भारतीय महिलायें चाहें वे शहरी हों या कस्बों की, छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना देती हैं। धारावाहिकों से उत्साहित होकर बहुत सी महिलाएं पार्लरों पर जाकर वैसा ही मेकअप कराती हैं जैसा कि उन्होंने “फलां” सीरीयल में देखा था।
कई धरावाहिकों में महिलाओं को शक्की मिज़ाज दिखाया जाता है | यह गलत नहीं है, उन्हें शक करने की अजीब सी आदत होती है परन्तु सभी के साथ ऐसा नहीं है कई बार इससे महिलाओं के मानस पटल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इन धारावाहिकों ने महिलाओं के शक को एक नयी परिभाषा दी है। उनके सामने इतने सारी स्थितियां प्रस्तुत कर दी हैं जब वे शक कर सकती हैं। यानी कुछ सीरियल शक करने की नई तरकीबों को भी सुझा रहे हैं।
हमारे धारावाहिक निर्माता सही नब्ज़ को पहचानते हैं। इसलिये 80 प्रतिशत से ज़्यादा धारावाहिक रोने-धोने वाले होते हैं। बहुओं और सासों के झगड़ों, नखरों, स्टाइलों को देखकर लगता है कि टेलीविज़न की दुनिया में पुरुषों को कम जगह दी जा रही है। निर्माता जानते हैं कि मार्केट में महिलाओं और बच्चों से संबंधित कोई चीज़ उतार दो, फिर देखो कैसे उसकी मांग बढ़ती है।
आजकल के धारावाहिक पहनावे को भी बदल रहे हैं । खासकर खलनायिकाओं के पहनने के तरीके उन्हें भा रहे हैं। ये धरावाहिकों का ही असर है कि बिंदी लगाने के नए-नए स्टाइलों की कापी की जा रही है।
औरतों का रोना-धोना, उनकी पारिवारिक समस्याएं, उनका शोषण या उनकी बहादुरी की दास्तान आदि आजकल के धारावाहिकों के मुख्य हैं | मगर इसी बीच आजकल कुछ नए चैनल नए ढंग के धारावाहिकों के साथ मैदान में उतर चुके हैं | ‘ज़ी ज़िन्दगी’ और ‘सोनी पल’ बहुत तेज़ी से अपनी जगह पक्की कर रहे हैं | ‘ज़ी ज़िन्दगी’ के धारावाहिकों को मध्य वर्ग की घरेलू महिलाओं में खूब पसंद किया जा रहा है | इनकी अक्सर कहानियां पाकिस्तानी संस्कृत की पृष्ठभूमि लिये हुए हैं और इनमें ज़िन्दगी की ज़मीनी हक़ीक़त से रू-ब-रू कराने के जो कोशिश की गयी है वो वाक़ई में लाजवाब है | इस विशेषता ने घरेलू महिलाओं को और आकर्षित करने में मदद की है |
कहा जा सकता है कि भारत में पारिवारिक धारावाहिकों का भविष्य ना केवल सुरक्षित है बल्कि उज्ज्वल है क्योंकि अब भारतीय निर्माता विदेशी धारावाहिकों से काफी कुछ सीखने का प्रयास कर रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप अब नित नए-नए प्रयोग सामने आ रहे हैं और और घरेलू महिलाओं को भी इन प्रयोगों की वजह से कुछ अलग हटकर नया देखने को मिल रहा है |
समाप्त
मोo तारिकुज्ज़मा