परिशिष्ट की भाषा
विचारों, भावनाओं अथवा संवेदनाओं को व्यक्त करने के माध्यम को भाषा कहते हैं | भाषा किसी भी समाज अथवा संस्कृति का दर्पण एवं उसकी पहचान होती है | मुद्रित माध्यम के अविष्कार के साथ ही भाषा का महत्व और अधिक बढ़ गया | भारत ही नहीं बल्कि संसार के सभी देशों में समाचार पत्रों ने अपना जाल फैलाकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को सिद्ध किया और साथ ही साथ व्यक्ति को विभिन्न सामाजिक एवं वैचारिक दृष्टिकोण से सोचने पर मजबूर कर दिया है | अर्थात कहा जा सकता है कि मानव जाति की चेतना के विकास में मुद्रित माध्यम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है |
बात अगर हिंदी समाचार पत्रों की की जाये तो इसमें समाचार के आलावा विभिन्न विषयों पर विभिन्न प्रकार के लेख प्रकाशित होते हैं | समाचार, फीचर एवं सम्पादकीय के साथ साथ यात्रा-वृत्तांत, समीक्षा, चुटकुले आदि जैसे मनोरंजनपरक लेख भी इसके अंग हैं | प्रत्येक लेख अपने कुछ विशेष गुणों के कारण एक भिन्न प्रकार का होता है और इन सब की भाषा एवं शैली में भी एक ग़ैरमामूली अंतर होता है | यहाँ पर हम परिशिष्ट की भाषा पर चर्चा कर रहे हैं |
परिशिष्ट की भाषा कैसी होती है इसे जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि परिशिष्ट किसे कहते हैं | कुछ विशेष दिनों में समाचार पत्रों के साथ कुछ पृष्ठ अलग से प्रकाशित किये जाते हैं सामान्यतः इन पृष्ठों की संख्या चार या उससे अधिक होती है कुछ समाचार पत्र शुक्रवार, शनिवार तथा रविवार आदि दिनों में नियमित रूप से परिशिष्ट प्रकाशित करते हैं | ये परिशिष्ट तत्कालीन मुद्दों, त्योहारों अथवा अन्य अवसरों के विषयों पर आधारित होते हैं
यूँ तो हिंदी समाचार पत्रों में सभी विषयों पर प्रकाशित होने वाली सामग्री भाषा के दृष्टिकोण से एक दूसरे से भिन्न होती है मगर बात अगर परिशिष्ट की भाषा की हो तो पता चलता है कि ना केवल परिशिष्ट की भाषा बल्कि इसकी शैली और प्रस्तुत कला भी भिन्न होती है | आमतौर पर इसमें हलकी-फुल्की और सामान्य भाषा का प्रयोग किया जाता है | कुछ परिशिष्ट तत्कालीन गंभीर एवं जटिल समस्या पर आधारित होते हैं इसलिए लाज़मी तौर पर इनकी भाषा में भी थोड़ी सी गंभीरता आ जाती है | दैनिक समाचार पत्र ‘राष्ट्रीय सहारा’ का साप्ताहिक परिशिष्ट ‘हस्तक्षेप’ इसका मुख्य उदाहरण है | इसकी विशेषता यह है कि यह पूरा परिशिष्ट किसी एक ही विषय पर केन्द्रित होता है अर्थात किसी एक समस्या या विषय पर विभिन्न लेखकों की विश्लेष्णात्मक टिप्पणी एवं चर्चा इसमें की जाती है इसकी भाषा थोड़ी गंभीर होती है मगर फिर भी इसमें आकर्षण का विशेष ध्यान रखा जाता है |
कुछ परिशिष्ट बॉलीवुड मसाला, फ़िल्मी गपशप आदि विषयों पर आधारित होते हैं | ऐसे परिशिष्टों में हिंदी भाषा के साथ हो रहे खिलवाड़ का नज़ारा आसानी से किया जा सकता है | एक तो इसमें अंग्रेज़ी के ग़ैरज़रूरी शब्दों की भरमार होती है दूसरे कभी-कभी अटपटे ढंग के वाक्यों का प्रयोग भी देखने को मिलता है | हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग वर्तमान भाषा विचारकों में सबसे अधिक चिंता तथा चर्चा का विषय है |
दिल्ली एन सी आर क्षेत्र से प्रकाशित होने वाला दैनिक सामाचार पात्र ‘नवभारत टाइम्स’ भी नियमित रूप से परिशिष्ट प्रकाशित करता है | हिंदी समाचार पत्रों तथा उसके परिशिष्टों में संभवतः यह सबसे अधिक अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने वाला समाचार पत्र है | इसकी भाषा कभी-कभी हिंदी के मानक स्तर से भी भटकी हुई नज़र आती है | “स्किन का रखें ऐसे ख्याल”, “ मैनेजमेंट में फ्यूचर”, “तुषार का बैडलक” आदि भद्दे प्रयोगों के ऐसे उदाहरण हैं जिनमे ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ी के शब्दों को ज़बरदस्ती ठूंस दिया गया हो जबकि इनकी जगह पर हिंदी के प्रचलित एवं ऐसे आसान शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है जो कि एक सामान्य से सामान्य पाठक को आसानी से समझ में आ सकते हैं |
परिशिष्ट की भाषा की एक विशेषता यह भी है कि इसमें अक्सर प्रत्यक्ष संबोधन शैली का प्रयोग किया जाता है अर्थात पढने पर ऐसा महसूस होता है कि लेखक सीधे तौर पर पाठक से जुड़ना चाहता है और इसके लिए कई बार “दोस्तों, आपको याद होगा”, “क्या आप जानते हैं”, “आज हम आपको बताएँगे”, “आपको यह ज़रूर पसंद आएगा” आदि वाक्यों का प्रयोग किया जाता है और इस विशेष भाषा एवं शैली के कारण पाठक ख़ुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है वास्तव में यह एक ऐसी शैली है जिसके कारण न केवल भाषा के सौन्दर्य में इज़ाफा होता है बल्कि इसके द्वारा विषय को और भी रोचक बनाकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में सहायता मिलती है |
अंग्रेजी के ऐसे शब्द जिनका प्रचलन हो और जिनका आसान विकल्प हिंदी में मौजूद ना हो, उनका प्रयोग अनुचित नहीं है मगर अनावश्यक रूप से बहुलता के साथ अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग हिंदी भाषा के लिए हानिकारक है |
एक सच यह भी है कि आज का समाज “उदन्त मार्तंड” के ज़माने का नहीं और ना ही 1920 के दौर का समाज है तब से लेकर आज तक ना केवल मीडिया की भाषा में परिवर्तन आया है बलकि आज लिखे जा रहे साहित्य की भाषा भी उस समय से भिन्न है और भाषा की भिन्नता के पीछे का एकमात्र कारण समाज है | समायानुसार परिवर्तन किसी भी भाषा के जीवंत रहने के लिए ऑक्सीजन की तरह आवश्यक है मगर इसका यह मतलब भी नहीं है कि केवल युवा पाठकों का बहाना बनाकर और श्रेष्ठता दिखाने की चाह में भद्दे और अटपटे प्रयोग किये जाएँ | जहाँ आसान विकल्प मौजूद हैं वहां ऐसे प्रयोग और परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है |
व्यक्तिगत रूप से मैं अंग्रेज़ी के अनावश्यक शब्दों के प्रयोग के खिलाफ़ हूँ मगर ऐसे शब्द जो हमारे समाज का हिस्सा बन चुके हैं और प्रयोग होते-होते इसी भाषा के होकर रह गए हैं और उनका आसान विकल्प मौजूद नहीं है, समाचार पत्रों या परिशिष्टों में उनका प्रयोग हिंदी भाषा के लिए कोई खतरा नहीं है बल्कि सही ढंग से प्रयोग इस भाषा के हित में हो सकता है |
समाप्त....
(मोo तारिकुज्ज़मा)
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